रायपुर, अभी तो सोशल मीडिया का जमाना, नेता खुद अपना प्रवचन लेकर सोशल मीडिया के वॉल पर तैरने लगते हैं। उनके सियासी प्रचार अभियान में अभिनय है, करतब है, सबकुछ है मगर पहले ऐसा नहीं था। वार्ड के चुनाव हो या विधायकी सांसदी का सड़क पर लोगों का हूजूम आज से थोड़ा बड़ा होता था।
चुनाव के कैनवॉस पर रंग थोड़े ज्यादा होते थे। धोती में छूही रंग से नारे लिखे जाते थे। मगर उस दौर में नारे और बैच बच्चों के पसंदीदा विषय होते थे। नारे कुछ अजीब से तो कुछ रोचक होते थे।
दो पत्ती : दो बत्ती इसका आशय यह होता था कि, दो पत्ती छाप को जिताना है और बाकी को धाराशायी करना है।
चार चवन्नी थाली में विरोधी उनका नाली में। 90 के दशक में यह नारा जिसे जैसा ठीक लगता अपनी सुविधा के हिसाब से सामने वाले प्रत्याशी को नाली में ढकेलने के लिए काफी होता था
बसपा वाले इस मामले में तेज थे। उनका नारा होता था चलेगा हाथी उड़ेगा धूल न रहे पंजा न रहे फूल,इस तरह वे बताते थे कि, बसपा जीतने जा रही है।
आजकल दो पत्ती छाप को लोग दो पत्ती चल भट्ठी कहने लगे हैं, यानी चुनाव में शराब बांटने की परंपरा पर इसे व्यंग माना जा सकता है।
फूल छाप को चोट दो पंजे को वोट दो जैसे नारे भी पुराने दौर में सुनाई पड़ते रहे हैं।
कुछ चीजें हैं जो आज तक नहीं बदली।
प्रत्याशी आज भी, मृदुभाषी, मिलनसाल, संघर्षशील, युवा ही हैं
आज भी सारे प्रत्याशी प्रचंड मतों से जीतने की अपील ही कर रहे हैं।