बस्तर का नाम सुनते ही बारूद गोली, धमाका यही आपके जहन में आता है। कुछ हद तक तस्वीर वैसी ही है। मगर उतना खतरा नहीं है, जितना हिंदी सिनेमा में नक्सलवाद को दिखाया जाता है। फिर भी अंदरूनी ईलाकों में जवान कठिन परिस्थतियों में सुरक्षा देने का काम कर रहे हैं।
क्या आप जानते हैं कि, किन परिस्थितियों में जवान बस्तर में नक्सलियों से लोहा ले रहे हैं। कैसे जवानों की एक चूक शहादत की ओर ले जाती है। नक्सली जवानों को नुकसान पहुंचाने तरह तरह के हथकंडे अपनाते हैं। आज हम आपको उन्हीं हथकंडों में बारे में बता रहे हैं। जिस जान में कई बार जवान,आदिवासी या कई बार मवेशी भी इनकी चपेट में आ जाते हैं। नक्सली अपने हमलो में चार तरीके अपनाते है “बारूदी सुरंग, आईडी ब्लास्ट,रेम्बो तीर, स्पाईक होल”
बारूदी सुरंग के बारे में हाउ स्टफ्स वर्क्स के मुताबिक, दरअसल विस्फोट के औजार होते हैं। इनमें ट्रिपवायर या दबाव से ट्रिगर करके धमाका किया जा सकता है। विस्फोट के ये औजार जमीन की सतह पर या उसके एकदम नजदीक नीचे दबाकर रखे जाते हैं। बारूदी सुरंग का मकसद इसके संपर्क में आने वाले व्यक्ति या वाहन को विस्फोट या धमाके से निकलने वाली चीजों के जरिए मार गिराना होता है।’ नक्सली इसे बारिश के दिनों में जमीन के नीचे दबा देते हैं। बारिश में मिट्टी भीगकर सख्त हो जाती है। केवल नक्सलियों को यह पता होता है कि, इसे जुड़े वायर को उन्होंने कहां छिपाकर रखा है। जब कभी नक्सलियों को विस्फोट करना होता है वे इसमें वायर जोड़कर काफी दूर चले जाते हैं। दूर बैठकर वे गुलेल की तरह दोमुंह वाली लकड़ी के सहारे जवानों के वाहनों को निशाना बनाते हैं जैसे ही गुलेलनुमा लकड़ी के दायरे में गाड़ी आती है नक्सली वायर को बैटरी से स्पार्क यानी चिंगारी देते हैं और विस्फोट हो जाता है।
IED (इम्प्रोवाइज्ड एक्सप्लोसिव डिवाइस) यह एक तरह से बम होता है। यह प्रेशर कुकर या स्टील के डिब्बे में विस्फोटक भरके बना होता है। साथ ही इसमें दूर से धमाका करने के लिए एक डेटोनोटिंग मैकेनिज्म होता है। डेटोनेटिंग का मतलब ऐसी पद्धती जिसके जरिए विस्फोट होता है। बस्तर में माओवादी विस्फोट करने के लिए IED बहुत ज्यादा इस्तेमाल करते हैं। नक्सल-प्रभावित इलाके में बारूदी सुरंग (लैंडमाइन) से ज्यादा IED मिले हैं।

स्पाइक होल जवानों को नुकसान पहुंचाने के लिए नक्सली गड्ढा खोदकर इसके अंदर नुकीली लोहे की सरिया गाड़ते हैं। फिर इसमें जल्दी से टूट जाने वाली लकड़ियां लगाकर सूखे पत्तों से ढंक देते हैं। ताकि जंगल मे ऑपरेशन पर आने वाले जवान का पांव इस पर पड़े और वह गड्ढे में गिर जाए। चुंकि गड्ढे में नुकिले त्रिशुल के समान छड़, राड लगे होते हैं यह सीधे जवानों के शरीर को भेदकर गहरा घाव बना देता है। अक्सर यहां IED भी नक्सली लगाते हैं। इस स्पाइक होल में कई बार जवान, आम ग्रामीण, मवेशी भी गिरकर घायल हो जाते हैं।
‘रैंबो ऐरो (तीर)’
यह जानवर के मल से लिपटा हुआ देशी बम हैं। गृह मंत्रालय की रिपोर्ट में इसका कई बार जिक्र हुआ है। अभी जिस तरह के तीर का इस्तेमाल किया जा रहा है। उनमें विस्फोटक होते हैं। हालांकि, यह विस्फोटक ज्यादा नुकसान पहुंचाने वाला नहीं होता। लेकिन इससे बहुत ज्यादा गर्मी और धुआं निकलता है, जो कि सुरक्षा कर्मियों को चकमा देने के लिए काफी है।गृह मंत्रालय की एक रिपोर्ट में कहा गया है,तीर के ऊपरी हिस्से में बेहद कम ताकत वाला गनपाउडर या फायरक्रैकर पाउडर होता है। जो अपने लक्ष्य से टकराते ही फट जाता है। यह दिखने में ऐसा लगता है जैसे तीर के सामने वाले हिस्से में किसी ने लट्टू भौंरा चिपका दिया हो।

तो ये चार तरीके हैं जिसके जरिए नक्सली जवानों को निशाना बनाते हैं। इसमें एक या दो नक्सली, या संघम सदस्य जवानों को गहरा नुकसान पंहुचा सकते हैं। गृह मंत्रालय की रिपोर्ट कहती है कि “छत्तीसगढ़ में नक्सलियों का आतंक सबसे अधिक है। 2001 से लेकर 2018 तक नक्सलियों ने 9 हजार 96 अपराधों को अंजाम दिए है।”आँकड़े तो यही बताते है कि पूरा इलाका एक तरह से लाल आतंक से घिरा हुआ और बस्तर बारूद की ढेर पर बैठा हुआ है। 2001 से अब तक नक्सली 1074 विस्फोट कर चुके हैं। यानी औसतन देखा जाए तो नक्सली हर साल 56 धमाके करते हैं,यानी हर माह लगभग 5 धमाके।