भारत की आज़ादी के आंदोलन में छत्तीसगढ़ से अनेक विभूतियों ने अलग-अलग माध्यम से अपनी भागीदारी दी, किसी ने जन आंदोलन खड़ा किया तो किसी ने अपने क्रन्तिकारी लेख से स्वतंत्रता आंदोलन की लोगों के बीच अलख जगाई. उनमें ही एक थे माधव राव सप्रे जो अपने क्रांतिकारी लेख के माध्यम से लोगों में अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ आक्रोश जगा दिया. और इसकी सजा अंग्रेज सरकार ने उन्हें जेल में डाल कर दी.
सप्रे भारतीय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस गरम दल के नेता लोकमान्य तिलक से बहुत प्रभावित थे। उन्होंने तिलक के मराठी पत्रिकाओं का हिंदी अनुवाद में प्रकाशन किया। तिलक के केसरी पत्रिका का 13 अगस्त 1907 में हिंदी प्रकाशन शुरू किया। इनके प्रकाशन में 2 लेख ऐसा प्रकशित हुआ जिसने अंग्रेज अधिकारीयों को झकझोर कर रख दिया था। “देश का दुर्देवा” और “बम्ब गोले का रहस्य” शीर्षक के इन दोनों लेखों ने अंग्रेजों के विरुद्ध छत्तीसगढ़ सहित देश के कई हिस्सा में आंदोलन को तीव्र कर दिया।
उन्होंने अपने क्रन्तिकारी लेख के माध्यम से लोगों को देश प्रति कुछ करने का भाव जगाना चाहते थे।
और वैसा ही हुआ, लोगों में राष्ट्र के प्रति भावनाएं बढ़ने लगी। बस अंग्रेजों के लिए इतना ही काफी था कि अंग्रेज माधवराव के खिलाफ क़ानूनी कार्यवाही कर सकें। वीर सावरकर के 1857 स्वातंत्र्य समर को प्रकाशन से पूर्व प्रतिबन्ध कर दिया गया था और 22 अगस्त 1908 को देश सेवा प्रेस और हिंदी केसरी के सम्पादकों के घरों की तलाशी ली गई और पत्रिका के दोनों संपादक कोल्हटकर और सप्रे गिरफ्तार कर लिए गए। हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में राजद्रोह का यह पहला मुकदमा था। सप्रे का स्वस्थ्य पहले से ही ख़राब था। लगभग तीन महीने के जेल जीवन के दौरान उनका स्वस्थ्य और बिगाड़ा इसी बीच उनके मित्र माफ़ी मांगकर जेल से छूटने की उनको सलाह देते रहे मगर सप्रे माफ़ी मांगने को तैयार न थे।
बाद में जब सप्रे के बड़े भाई बाबूराव ने यह धमकी दी कि मेरा भाई माफ़ी मांगकर जेल से बहार नहीं आएगा तो मैं आत्महत्या कर लूंगा। इससे सप्रे विचलित और बेचैन हो गए तब उन्होंने क्षमा पत्र पर हस्ताक्षर कर दिया। यह घटना उनके लिए राजनीतिक आत्महत्या के सामान थी। उनकी रिहाई के बाद 14 नवम्बर 1908 को हिंदी केसरी का जो अंक निकला उसमें लिखा था कि माफ़ी मांग कर सप्रे ने अपने सार्वजनिक और राजनैतिक जीवन का सत्यानाश कर लिया। माफ़ी मांगकार जेल से छूटने के बाद सप्रे लम्बे समय तक लज्जा, पश्चताप और आत्मधिक्कार की मनोदशा में रहे। इसी मनोदशा में वे एक वर्ष तक वे अज्ञातवास में थे और भीख मांगकर जीवनयापन करते थे। इस दौरान उन्होंने सार्वजानिक जीवन से सन्यास ले लिया और हनुमानगढ़ के रामदर्शी मठ में रहने लगे। इसी समय उन्होंने समर्थ रामदास की प्रसिद्द पुस्तक दास बोध का पहले अध्यन किया फिर बाद में हिंदी अनुवाद भी किया।