छत्तीसगढ़ शासन द्वारा दिया जाने वाला संस्कृत भाषा सम्मान अब ब्रह्मलीन राजेश्री महंत वैष्णव दास महाराज के नाम पर दिया जाएगा। सीएम भूपेश बघेल ने सोमवार को दूधाधारी मठ में इसकी घोषणा की हैं।
छत्तीसगढ़ शासन हर साल किसी व्यक्ति या संस्था को संस्कृत भाषा के विकास में योगदान के लिए संस्कृत भाषा सम्मान देती है, जिसे अब से अब ब्रह्मलीन राजेश्री महंत वैष्णव दास महाराज के नाम पर दिया जायेगा। तो आइये जानते हैं..कौन थे? ब्रह्मलीन राजेश्री महंत वैष्णव दास महाराज!
महंत वैष्णवदास संस्कृत शिक्षा के बड़े प्रेमी थे। शिवरीनारायण मठ के राजेश्री महंत वैष्णवदास 14 वें महंत थे। साथ ही साथ वह रायपुर के दूधाधारी मठ के भी महंत थे।
महंत वैष्णवदास बिहार प्रांत के छपरा जिलान्तर्गत परसा थाना में पंचरूखी के निवासी थे। वे 16 वर्ष की आयु में रामलीला मंडली के साथ बिहार से छत्तीसगढ़ में आये थे। महंत वैष्णवदास दूधाधारी मठ के महंत बजरंगदास के शिष्य रहे हैं, कहते है कि उनकी प्रतिभाओ से प्रभावित होकर महंत बजरंगदास ने उन्हें अपना शिष्य बनाया था। वैष्णवदास उनके मृत्योपारांत इस मठ के आठवें महंत बने। इस समय मठ में 20 गांव की मालगुजारी थी, वैष्णवदास ने पांच गांव खरीदकर गांवों की संख्या 25 कर ली थी।
संस्कृत भाषा के विकास के लिए महंत वैष्णव दास ने अपना सर्वस्व जीवन दिया। उन्होंने 1955 में रायपुर में ”श्री दूधाधारी वैष्णव संस्कृत महाविद्यालय” खुलवाने के लिए 3.5 लाख रूपये नगद और 100 एकड़ जमीन दान में दिया। आगे चलकर रायपुर के अमरदीप टॉकिज को भी इस महाविद्यालय को दान कर दिया। इसी प्रकार उन्होंने बालिकाओं की शिक्षा के लिए रायपुर में सन् 1958 में ‘शासकीय दूधाधारी बजरंगदास महिला महाविद्यालय” खुलवाया और इसकी व्यवस्था के लिए मठ से 1.5 लाख रूपये नगद और पेंड्री गांव के 300 एकड़ जमीन दान में दी। सन् 1968 में मठ में एक संस्कृत पाठशाला चलती थी, वहां पढने वाले विद्यार्थियों के लिए उनके रहने, खाने-पीने, कपड़ा, पुस्तका का खर्च मठ से देने की व्यवस्था महंत वैष्णव दास ने की थी।
वैष्णवदास ने रायपुर में ”श्री दूधाधारी सत्संग भवन” के रूप में छत्तीसगढ़ की जनता को धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक आयोजनों के लिए सर्व सुविधा युक्त भवन उपलब्ध कराया। जिसके लिए उपाधि के रूप में म.प्र. स्वतंत्रता संग्राम सेनानी संघ के प्रांतीय अध्यक्ष सेठ गोविंददास ने एक ”ताम्रपत्र” देकर सम्मानित किया था। म.प्र शासन ने .सन् 1975-76 में उन्हें ”कृषक शिरोमणि” की उपाधि प्रदान की थी। सामाजिक उत्थान में अपना सर्वस्र देने की वजह से उन्हें ”अखिल भारतीय वैष्णव सम्प्रदाय के अध्यक्ष” भी बनाया गया। उन्होंने रामसुन्दरदास को अपना शिष्य बनाकर शिवरीनारायण और दूधाधारी मठ का महंत नियुक्त किया और दिनांक 12-11-1995 को ब्रह्मलीन हुए।
महंत वैष्णवदास राजनीती में भी रूचि रखते थे। छत्तीसगढ़ की राजनीति में महंत वैष्णवदास की अच्छी पूछ परख थी। महंत जी के राजनीतिक मित्रों में पंडित रामदयाल तिवारी, बृजलाल वर्मा, खूबचंद बघेल, और ठाकुर प्यारेलाल सिंह प्रमुख थे। ठाकुर प्यारेलाल सिंह जब तक कांग्रेस में रहे तब तक वैष्णवदास भी कांग्रेस में थे। ठाकुर प्यारेलाल सिंह के साथ महंत वैष्णवदास ”किसान मजदूर प्रजापार्टी” में चले गये। महंत वैष्णवदास ने भी एक बार भाटापारा-सीतापुर निर्वाचन क्षेत्र से किसान मजदूर प्रजापार्टी से चुनाव लड़े थे जिसमें कांग्रेस के चक्रपाणि शुक्ल से मात्र 1523 वोट से हार गये थे।
संस्कृत भाषा के लिए उनका योगदान हमेशा याद किया जाता रहा है, इसलिए अब छत्तीसगढ़ शासन द्वारा इनके नाम पर ही संस्कृत सम्मान दिया जाएगा।