” मुक्तिबोध “….. एक प्रगतिवादी , प्रयोगवादी ,विद्रोही कवि , एक आलोचक , एक कथाकार ,एक ऐसा व्यक्तित्व जिन्हें शब्दों के मोतियों से पिरोना सम्भव नहीं है !!
मुक्तिबोध ऐसे कवि के रूप में जाने जाते है .. जिनकी कविताओं में यथार्थ का चित्रण स्पष्ट दिखता हो , जिनकी लेखनी में विभिन्न शब्दवाली का मिश्रण हो , जिनकी कविताएं “फैंटेसी” का प्रतिरूप गढ़ती हो !!
छत्तीसगढ़ के नीलकंठ कहे जाने वाले “गजानन माधव मुक्तिबोध” आज आधुनिक कवियों , साहित्यकारों , कथाकारों के प्रेरणास्रोत है ।
साहित्य के क्षेत्र में उन्होंने इस कदर अपनी छाप छोड़ी है , कि आज सभी उनके नक्शेकदम पर चलना चाह रहे है । बिना प्रेम और विरह पर लिखे वे हिंदी साहित्य के एकमात्र महान कवि हैं, जिनका कोई दूसरा उदाहरण नहीं है ।
वेदना में हम विचारों की , गूँधे तुमसे , बिंधे तुमसे व आवेष्टित परस्पर हो गए -मुक्तिबोध
मुक्तिबोध की रचनाएं 3 बिंदुओं पर आधारित होती थी अंधेरा , टेरर और प्रकाश
कविताओं की यात्रा की शुरुआत अंधेरे से होती है “मानो चारो ओर अंधेरा और वे स्वयं अंधेरे में हो” । यात्रा का दूसरा मोड़ टेरर ” अंधेरे की स्थिति उन्हें टेरर (दहशत) में लेजाती है ” । तीसरा अंधेरे से बाहर प्रकाश । मुक्तिबोध ने कविताओं में फैंटेसी का प्रयोग, मुक्त छंद का प्रयोग, नये प्रतीकों का प्रयोग, नये भाषा शब्दों का प्रयोग करके पुरानी रूढ़ियों के प्रति विद्रोह किया है।
जिंदगी में जो कुछ है , जो भी है सहर्ष स्वीकारा है; इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है वह तुम्हारा है – मुक्तिबोध
गजानन माधव ‘मुक्तिबोध का जन्म 13 नवंबर 1917 को श्योपुर (शिवपुरी) जिला मुरैना, ग्वालियर (मध्य प्रदेश) में हुआ था। मुक्तिबोध अत्यन्त अध्ययनशील थे। आर्थिक संकट कभी भी उनकी अध्ययनशीलता में बाधा नहीं बन पाए। राजनाँदगाँव उनका अध्यापन-क्षेत्र ही नहीं, अध्ययन- क्षेत्र भी था। यहाँ रहते हुए उन्होंने अँग्रेज़ी, फ्रेंच तथा रूसी उपन्यासों के साथ जासूसी उपन्यासों, वैज्ञानिक उपन्यासों, विभिन्न देशों के इतिहास तथा विज्ञान-विषयक साहित्य का गहन अध्ययन किया।
साहित्यिक जीवन
मुक्तिबोध तारसप्तक के पहले कवि थे। मनुष्य की अस्मिता, आत्मसंघर्ष और प्रखर राजनैतिक चेतना से समृद्ध उनकी कविता पहली बार ‘तार सप्तक’ के माध्यम से सामने आई, लेकिन उनका कोई स्वतंत्र काव्य-संग्रह उनके जीवनकाल में प्रकाशित नहीं हो पाया। मृत्यु के पहले श्रीकांत वर्मा ने उनकी केवल ‘एक साहित्यिक की डायरी’ प्रकाशित की थी, जिसका दूसरा संस्करण भारतीय ज्ञानपीठ से उनकी मृत्यु के दो महीने बाद प्रकाशित हुआ। ज्ञानपीठ ने ही ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ प्रकाशित किया था।
कुछ प्रमुख कृतियाँ
चांद का मुँह टेढ़ा है, भूरी भूरी खाक धूल (कविता संग्रह), काठ का सपना, विपात्र, सतह से उठता आदमी (कहानी संग्रह), कामायनी:एक पुनर्विचार, नयी कविता का आत्मसंघर्ष, नये साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र(आखिर रचना क्यों), समीक्षा की समस्याएँ, एक साहित्यिक की डायरी (आलोचनात्मक कृतियाँ) एवं भारत:इतिहास और संस्कृति।
17 फरवरी 1964 को उनकी मृत्यु हो गई थी। उनके जीवन की एक विडंबना रही है कि जीतेजी उनकी एक भी रचना प्रकाशित नहीं हुई। मृत्यु के बाद साहित्य जगत ने उनकी लेखनी को महत्व दिया। वर्तमान पीढ़ी को सीखना चाहिए कि किस तरह मुक्तिबोध ने अभावों में रहकर भी उत्कृष्ट सृजन किया। उनके दौर में हालांकि किसी ने उनके लिखे साहित्य को नहीं पढ़ा, मगर दुनिया त्यागने के बाद उन्होंने अपनी ऐसी चमक बिखेरी कि आज हर लेखक उनके पदचिन्हों पर चलने की चाहत रखता है।
तुम्हारे पास हमारे पास , केवल एक चीज़ है
ईमान का डंडा है,
बुद्धि का बल्लम है,
अभय की गेंती है,
हृदय की तगारी है -तसला है
नए नए बनाने के लिए भवन
आत्मा के
मनुष्य के
हृदय की तगारी में धोते है हमीं लोग
जीवन की गीली और महकती हुई मिट्टी को – मुक्तिबोध